अब भी कुछ लोग हैं जो हवा में रस घोल लेते हैं
अब भी कुछ लोग हैं जो हिंदी बोल लेते हैं
अब भी कुछ लोग हैं जो हिंदी बोल लेते हैं
ये पंक्तियाँ यूँ तो आम तरह की ही हैं, पर नहीं, ये आम नहीं हैं। ये वो पंक्तियाँ हैं जो आज के समाज की, आज के भारत की दयनीय अवस्था को बयां करती हैं। हिंदी हमारे समाज का वो हिस्सा है जिससे हम बने हैं, जो हमारे अस्तित्व को पहचान देता है। पर स्थिति आज ऐसी है कि भारत जैसे देश में हिंदी बोलने वालों की कमी हो रही है। लोग अंग्रेज़ बनने की होड़ में हिंदी से दूर हो रहे हैं। आज लोग भारत में नहीं, इंडिया में जी रहे हैं। आज हर बच्चे को अच्छी हिंदी आती हो या नहीं, उसे अच्छी अंग्रेज़ी ज़रूर सिखाई जाती है, मानो अंग्रेज़ी भाषा न हुई, आदमी की इज़्ज़त हो। चीनी के बाद विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा आज अपने ही राष्ट्र में अपने अस्तित्व, अपनी पूर्णता, अपने सम्मान के लिए लड़ रही है। क्या यही है हम? हमें खुद से पूछने की ज़रूरत है कि क्या हम सच में हिन्दुस्तानी कहलाने के लायक हैं!? इस हिंदीवादि कहे जाने वाले राष्ट्र के ही कुछ लोग आज इसे हीनता की दृष्टि से देखते हैं, जिसे सिर्फ हिंदी आती है उसे कुछ नहीं आता।
वैश्वीकरण ने अंग्रेज़ी को एक आवश्यक भाषा बना दिया है। इसका सबसे अधिक प्रभाव नयी पीढ़ी पर पड़ा है और आगे की पीढ़ियों पर पड़ रहा है। आज हर किसी की सुबह गुड मॉर्निंग और रात गुड़ नाईट से होती है। किसी ने कुछ दिया हो तो थैंक यू कहते हैं और किसी से कुछ लेना हो तो प्लीज़। ऐसे में कैसे हो हिंदी का प्रचार? हिंदी दिवस आते ही हिंदी पर प्रतियोगिताएँ, पखवाड़े, फलाना-फलाना चीज़ें आयोजित की जाती है। एक दिन के लिए हिन्दी को सर पर बैठाकर फिर नीचे उतार दिया जाता है।
हिन्दी को जितनी मान्यता मिलनी चाहिए उतनी नहीं मिल रही। आज़ादी के 70 साल बाद भी भारत अंग्रेज़ियत से आज़ाद नहीं हो पाया है। राष्ट्र के मुद्दे अब भी वही घिसे-पिटे है, कभी राजनीति तो कभी भ्रष्टाचार, कभी तेल तो कभी ईवीएम। पर केवल यही नहीं, भारत में आज हिंदी का प्रयोग भी मुद्दा है और उसका प्रयोग न होना भी। यह केवल एक बहस का मुद्दा बनकर रह गयी है।
सभी भारतियों को यह समझने की ज़रूरत है कि हिंदी केवल एक भाषा नहीं है, उनकी पहचान का हिस्सा। हिंदी का प्रयोग शर्म की नहीं बल्कि गर्व की बाद है। इसे केवल एक दिन न देकर हमेशा उतना ही महत्व देना आवश्यक है जितने की वो हक़दार है।
हिन्दी को जितनी मान्यता मिलनी चाहिए उतनी नहीं मिल रही। आज़ादी के 70 साल बाद भी भारत अंग्रेज़ियत से आज़ाद नहीं हो पाया है। राष्ट्र के मुद्दे अब भी वही घिसे-पिटे है, कभी राजनीति तो कभी भ्रष्टाचार, कभी तेल तो कभी ईवीएम। पर केवल यही नहीं, भारत में आज हिंदी का प्रयोग भी मुद्दा है और उसका प्रयोग न होना भी। यह केवल एक बहस का मुद्दा बनकर रह गयी है।
सभी भारतियों को यह समझने की ज़रूरत है कि हिंदी केवल एक भाषा नहीं है, उनकी पहचान का हिस्सा। हिंदी का प्रयोग शर्म की नहीं बल्कि गर्व की बाद है। इसे केवल एक दिन न देकर हमेशा उतना ही महत्व देना आवश्यक है जितने की वो हक़दार है।
No comments:
Post a Comment