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Saturday, 27 October 2018

नयी-पुरानी


दुनिया की सुनती हूँ
उससे खुद को बुनती हूँ
अपनी आवाज़ ज़रा कम पहचाना करती हूँ
दुनिया की सुनकर ही अब खुद को जाना करती हूँ

एक रोज़ था जब मैं, मैं हुआ करती थी
हर मोड़ पर फिसलती थी, गिरती थी संभलती थी
जब दुनिया दिन संग ढलती थी
मैं तन्हा ही जब चलती

अब रोज़ नयी कहानी है
जो दुनिया को सुनानी है
अपनी ये पहचान नहीं
पर अपनी ही ज़ुबानी है

जब हाथों पर मेहँदी चाँद-सी रचती थी
जब चेहरे पर ख़ुशी मुस्कान-सी जचती थी
अब हर रंग कोरा लगता है
लम्हों का कोहरा लगता है

पर गम नहीं ये बादल हैं
कुछ हालातों की चादर है
धूप के बाद छाँव आनी है
मेरे ही हाथों में मेरी ये कहानी है 

Wednesday, 10 October 2018

अगर तुम न होते


गर गर्मियाँ इतनी गर्म न होती तो क्या
मैं जान पाती कि सर्दियाँ इतनी सर्द हो सकती हैं?
गर तुम इतने सख़्त न होते तो क्या
मैं जान पाती कि मैं इतनी कोमल हो सकती हूँ?
गर तुम इतने पुरुष न बनते तो क्या
मैं इतनी स्त्री बन पाती?
गर तुम यूँ न जाते तो क्या
मैं यूँ तुम तक आ पाती?
गर तुम मुझ तक न आते तो क्या
मैं तुम से दूर जा पाती?
गर तुम्हारे सवाल इतने बड़े न होते तो क्या
मैं कभी उनका जवाब बन पाती?
नहीं! ये सब शायद ही कभी मुमकिन हो पाता
अगर तुम न होते।

Trying To Be

I'm not a stranger to myself I'm just trying to be To let someone else Know me The way I tried and lost Though I know myself...