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Saturday, 27 October 2018

नयी-पुरानी


दुनिया की सुनती हूँ
उससे खुद को बुनती हूँ
अपनी आवाज़ ज़रा कम पहचाना करती हूँ
दुनिया की सुनकर ही अब खुद को जाना करती हूँ

एक रोज़ था जब मैं, मैं हुआ करती थी
हर मोड़ पर फिसलती थी, गिरती थी संभलती थी
जब दुनिया दिन संग ढलती थी
मैं तन्हा ही जब चलती

अब रोज़ नयी कहानी है
जो दुनिया को सुनानी है
अपनी ये पहचान नहीं
पर अपनी ही ज़ुबानी है

जब हाथों पर मेहँदी चाँद-सी रचती थी
जब चेहरे पर ख़ुशी मुस्कान-सी जचती थी
अब हर रंग कोरा लगता है
लम्हों का कोहरा लगता है

पर गम नहीं ये बादल हैं
कुछ हालातों की चादर है
धूप के बाद छाँव आनी है
मेरे ही हाथों में मेरी ये कहानी है 

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