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Friday, 21 April 2017

Once There He Was


I had never thought about how lethal his touch could be 
I had never thought about his hands being the weapon
He who had pledged to take care of me
To treat me equal and respect my identity
He himself grabbed my dignity and threw it away
He, who had vowed before the sacred fire
To hold me above all
Stands prepared to make a deal of me
He, who had joined hands with me in this priceless tie
Stands prepared to burn me into the same fire for money
The scars on my skin are the proof 
Of how lethal his touch was
Yes, he was a weapon 
Disguised in the mask of life
He scratched my skin and pierced my soul
And hanged his wishes onto the holes
I wished for a home
But he, he gave me a cage
Where his mates and acquaintances 
Threatened me and fed me with crap
My throat lost its voice
And my eyes lost their sight
But I could still feel his hands
Moving upon my body
Pressing, rubbing and squeezing it
Extracting the life out of it
The bonds of purity 
Became the ropes of slavery
He trapped me into a prison called marriage
He, my husband, my soulmate
Took away my very own self from me
Cos he didn't want me
He wanted my body
And the savings in my bank account
He was my husband
Who tore me apart
But I, I was his wife too
With more rage in me
And even more fire inside me
I finally stood up on my own feet
My ornaments became my weapons
My body my strength
My courage shouted out
And I hit him on his face, hard
His nose started bleeding
It was sensitive though
Not like him
The spark from within me
Burnt him into ashes
Yes, he was my husband
And, he was ONCE alive


Monday, 17 April 2017

बचपन



कुछ खबर न थी अपनी ही कभी
अब दुनिया की भी रखनी होती है
जब भूख लगे तब माँ होती थी
अब माँ है दूर बस रोटी है

हर शाम चैराहो पर खेल निराले
बस वही ज़िंदगी थी अपनी
मैं अपनी धुन में चलती थी
ये सारी दुनिया थी अपनी

वो आसमान था बचपन का सपना
अब बचपन ही सपना लगता है
पैरों के नीचे अँगारे हैं
बस राह पर हक अब अपना है

थे आज़ादी को तरसे अब तक
अब घर-पिंजरा याद आता है
है कामयाबी दो कदम के आगे
अब बस संघर्ष सहारा है

कौन हूँ मैं..


आज बता ही दो मुझे
कि मैं क्या लगती हूँ तुम्हें
एक इंसान..एक लड़की..एक दोस्त
या यूँ ही कोई पड़ा हुआ खिलोना
जिसके साथ खेलने तक का रिश्ता है बस तुम्हारा
चलो मत बताओ
आज मैं ही बताती हूँ तुम्हें कि मैं क्या हूँ
एक लड़की हूँ मैं...हाँ सुना तुमने..
एक एहसास हूँ मै
मै एक दरिया हूँ जिसे तुक पार नहीं कर सकते
मैं एक नदी हूँ जिसकी धारा को तुम नहीं रोक सकते
मैं कोई डिसाईनर आउटफिट नहीं हूँ
फुटपाथ की एक ड्रेस हूँ जो खंरोच लगने पर भी साथ देती है
2.5 इंच की हील नहीं हूँ
पापा की कोल्हापुरी चप्पल हूँ जो टूट चुकी है पर अब भी चल सकती है
ब्रैंडेड आइलाईनर नहीं हूँ
वो काजल हूँ जो घर के दीयों की याद दिलाता है
नहीं हूँ मैं कोई मेकअप बाॅक्स
वो धूल हूँ जो धूल होने पर भी हाथों पर जमने के बाद खुशबू-सी लगती है
नहीं हूँ तुम्हारा पंचिंग बैग
जिसपर अपना गुस्सा उतार सको तुम
और सुन लो...तुम्हारा बिस्तर नहीं हूँ मैं...बिलकुल नहीं
जिसपर दिन भर की थकान के बाद तुम सो सको
ना वो जिस्म हूँ
जिससे तुम अपनी भूख मिटा सको
ना वो शराब की बोतल हूँ
जिसे गुस्से में, दर्द में पीकर नशे की लत लग जाए तुम्हें
हाँ...मैं एक लड़की हूँ
मेरी एक रूह है
जिसे मारने का हक किसी को नहीं है...किसी को भी नहीं।

अरबी कल्याणम


आज पहली बार सुना ऐसा कुछ। ऐसी प्रथा भी है हमारे समाज में इसका पता नहीं था।

यह प्रथा है केरल और उसके आस-पास के इलाकों की।केरल अपने मसालों के लिए विश्व प्रसिद्ध है, तथा हमेशा से रहा है। इन्हीं मसालों के लिए अरबी यहाँ आते रहे हैं।

यहाँ आने पर वे कुछ समय रहते और इस छोटे से वक्त(महीने भर या उससे थोड़ा ज्यादा) में अपने मनोरंजन के लिए किसी गरीब घर की लड़की से शादी करते, उसके साथ संबंध बनाते और वापिस जाते वक्त उसे तलाक़ दे जाते। कभी-कभी तो तलाक वापिस लौटने के बाद टेलीफोन पर दिए जाते। इस शादी के लिए लड़की के घर वालों को पैसे दिए जाते।

अब आप ही बताइए, क्या लड़कियाँ (भले ही वो गरीब क्यों न हो) काई सामान या खिलौना है जिसे खरीद लिया और मन भर जाने पर वापिस छोड़ दिया किसी जगह सड़ने को। कैसे लोग हैं हमारे समाज में..जो ऐसी कुरीतियों को बढ़ावा देते हैं। चंद पैसों के लिए अपनी खुद की जनी संतान को बेच देना। क्या गलती है उसकी..कि वो एक लड़की है़़ ?

हर जगह हर हाल में लड़कियाँ क्यों बली चढ़ती इन प्रथाओं की। सच बताऊँ तो मुझे ऐसे किसी कल्यानम (शादी) के बारे में पता नहीं था। आज एक टीवी प्रोग्राम पर देखा तो मालूम हुआ।

लोग बड़ी-बड़ी बातें करते है महिला सशक्तिकरण की, उनकी सुरक्षा की फिर कहाँ से आती हैं ये दखिया-नूसी परंपराएँ।ये दिखावा बंद करना होगा अब और कदम बढ़ाने होंगे। औरतों के लिए कुछ करने की हिम्मत नहीं है तो उनपर उँगली भी न उठाए कोई।



आज के समय में जब हर क्षेत्र में इतना विकास हो चुका है, और हो रहा है..वहाँ आज भी ऐसी कुरीतियों का ज़िदा होना बेहद शर्म की बात है। क्या फ़ायदा इस तरक्की का जब लोगों की सोच वही सदियों पुरानी है। एक तरफ लोग लड़कियों की इज्ज़त के रखवाले होने के दावे करते हैैं वहीं दूसरी ओर वही लोग हर दूसरे हफ्ते किसी बलात्कार को अंजाम देते है। ऐसी दोहरी मानसिकता वाले लोग हमारे समाज का वो घुन हैं जिसे हम खुद आश्रय दे रहे हैं और जो हमें ही खोखला कर रहा है। 

एक अच्छे समाज के लिए इन भद्दी रीतियों के फितूर को लोगों के सर से उतारना जरुरी है ताकि इनके नाम पर होने वाले कुकर्म बंद हो। क्योंकि चाहे आधुनिकता कितनी ही क्यों न बढ़ जाए और सभ्यताएं कितनी ही क्यों न बदल जाए, एक अच्छे समाज का निर्मान अच्छे मन, अच्छी सोच व अच्छे लोगांे से ही होता हैै।





Trying To Be

I'm not a stranger to myself I'm just trying to be To let someone else Know me The way I tried and lost Though I know myself...