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Monday, 17 April 2017

बचपन



कुछ खबर न थी अपनी ही कभी
अब दुनिया की भी रखनी होती है
जब भूख लगे तब माँ होती थी
अब माँ है दूर बस रोटी है

हर शाम चैराहो पर खेल निराले
बस वही ज़िंदगी थी अपनी
मैं अपनी धुन में चलती थी
ये सारी दुनिया थी अपनी

वो आसमान था बचपन का सपना
अब बचपन ही सपना लगता है
पैरों के नीचे अँगारे हैं
बस राह पर हक अब अपना है

थे आज़ादी को तरसे अब तक
अब घर-पिंजरा याद आता है
है कामयाबी दो कदम के आगे
अब बस संघर्ष सहारा है

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