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Sunday, 30 December 2018

चलो! होश में आओ

जहाँ जिस जगह पर हो
वहीं रहोगे तो ना जाने
कहाँ तक जाओगे
कि कुछ दूर चलो
लड़खड़ाओ
संभलो
गिरो, उठो
कभी तो चलना सीख जाओगे

कि इंसान हो
क्या भूल गए हो?
या मुख़ातिब हो आजकल
किसी और ख्याल से?
कि बस चंद लम्हों
कि ज़िन्दगी में
सोचते हो कि
न जाने कहाँ पहुँच पाओगे!

अपनी शाख को संभाले हुए हो
और जड़ें नोच खा रहे हो
कि ये ख्वाब नहीं
तुम बिखर रहे हो
कब बताओ
होश में आओगे?

Friday, 21 December 2018

हम बिहारी हैं ना..


भारत- इस देश में बिहारी होना किसी विकलांगता से कम नहीं है। हज़ारों लोग, लाखों भाषाएँ, और ना जाने कितने ही वर्ग, पर निशाना केवल एक पर ही सधता है। जी हाँ! बिहारियों पर। भारत में कोई व्यक्ति कहीं भी जाए, किसी भी  साक्षात्कार के लिए, सबसे पहला सवाल होता है कि 'तुम कहाँ से हो?' और बस, एक बार कहने की देर है- बिहार, और सामने वाले के दिमाग़ में उस व्यक्ति का पूरा-का पूरा बायोडाटा बन जाता है। मानो किसी एक राज्य से होना ही उसकी पहचान हो।
क्या सच में बिहारी होना इतना बुरा है? मेरी मानो तो..हाँ! हर बिहारी के मन में एक बार ये बात ज़रूर आती है कि 'काश! मैं बिहार में नहीं, कहीं और जन्मा होता'। अगर अपने अनुभवों की बात करूँ तो मैंने आये दिन अपने आस-पास बिहारियों का मज़ाक बनते, कुछ भी आम से अलग होने पर 'तो क्या हुआ, वो बिहारी है ना' कहते सुना है, और कई बार खुद भी इसका शिकार हुई हूँ।
पर विडंबना ये है कि वही लोग जो एक बिहारी को 'बिहारी' कहकर गाली देते हैं, वही नालंदा, आर्यभट्ट, डॉ. राजेंद्र प्रसाद और ना जाने कितने ही महान लोगों और जगहों का नाम लेते नहीं थकते। वो ये भूल जाते हैं कि भारत को इतनी बड़ी देन बिहार से ही मिली है। इसी राज्य के लिट्टी चोखा का स्वाद एक बार किसी की ज़ुबान पर चढ़ जाए तो कभी उतर नहीं पाता। इसी राज्य के उस पर्व-  छठ को सबसे कठिन तपस्या कहा जाता है, जिसे यहाँ के लोग बड़ी सरलता से पूरा कर जाते हैं पर दूसरा कोई नहीं कर पाता।
बिहार आज विकास के मामले में पीछे ज़रूर है, किंतु ये सिर्फ राजनीतिक भिड़ंतों का नतीजा है, केवल एक कमी है, जिसे दूर किया जा सकता है। आज भी देश के सबसे प्रतिष्ठित परीक्षा यूपीएससी में सबसे ज्यादा छात्र बिहार से ही जाते हैं। जी हाँ, ये उसी बिहारी की जन्मभूमि है जिसे 'असभ्य ' का पर्याय कहा जाता है।
मैं भी एक बिहारी हूँ। मेरा लहजा बाकि किसी भी दूसरे राज्य के लोगों की तरह ही है। पर ये मुझे कम बिहारी नहीं बनाता। मेरा लहजा मेरी पहचान नहीं है। पर अगर मैं अपना लहज़ा बदलकर एक बिहारी की तरह बात करूँ तो मैं पहचान ली जाउंगी। और फिर वही मज़ाक बनाने का क़िस्सा शुरू। और ऐसा हुआ भी है।
किसी भी व्यक्ति को सिर्फ इसलिए नीची नज़र से देखना क्योंकि वो किसी एक राज्य से आया है, या किसी लहजे में बात करता है, न जाने किस सभ्यता की निशानी है। एक बिहारी औरों से अलग हो सकता है, पर वह भी उतना ही इंसान है जितना कोई और। रंग-ढंग में निराले ये बिहारी अपनी ही धुन में मस्त रहते हैं। ज्यादा फर्क नहीं पड़ता इन्हें कि कौन इन्हें क्या कहता है। वो जानता है- अपनी और अपने राज्य कि पहचान। कोई माने या ना माने..'एक बिहारी सब पे भारी' यूँ ही नहीं कहते! बिहारी होना मुश्किल ज़रूर है भारत में, पर यह ही तो उसे सबसे अलग बनाती है। 'बिहारी होना बहुत मुश्किल है।'

चित्रसाभार:-
bankersadda.com

Saturday, 17 November 2018

क्या पतझड़ होना आसान है?

पतझड़ बेरुखी का प्रतीक है
और दुःख का
क्या आसान है पतझड़ के लिए
पतझड़ होना?

यूँ हर गम का कारण
ठहराया जाना?
मन के भारीपन के लिए
बेवजह बातें सुनना?
क्या आसान है पतझड़ के लिए
पतझड़ होना?

न सावन न जाड़ा
किसी को कुछ न कहा जाता है
पतझड़ का मानो हर गम से नाता है
खिड़की पर बैठ यूँ
गिरते पत्तों का कारण
पतझड़ को ही ठहराते हैं
क्या आसान है पतझड़ के लिए
पतझड़ होना?

पतझड़ भी तो आखिर
गिरते पत्तों को देखता है
सूखे पत्तों को कुचला जाता
देखता है
पतझड़ भी तो
फूलों को मुर्झाता देखता है
प्रकृति के सभी रंगों को
फ़र्श पर बिखरता देखता है
क्या आसान है पतझड़ के लिए
पतझड़ होना?

पतझड़ भी देखता है
वो वीरान पेड़
वो उदास चेहरे
पतझड़ भी तो घूँट
बेबसी के पीता है
क्या आसान है पतझड़ के लिए
पतझड़ होना?

पतझड़ खुद को देख
मुस्कुरा क्यों न पाता है?
उन बिखरे पत्तों पर चलकर भी
तो कितने चेहरे मुस्कुराते हैं
और चारों ओर उड़कर
पत्ते हवा में
संगीत घोल जाते हैं

फिर भी पतझड़
सबके गम में गमगीन
उदासी में उदास होता है
और सोचता है
वो सावन, या गर्मी
या कोई और मौसम
क्यों न हुआ?
क्या सच, इतना आसान है
पतझड़ के लिए
पतझड़ होना?

चित्र साभार: puisiayuevie.blogspot.com

Thursday, 15 November 2018

नाबालिग से बालिग- झारखण्ड के 18 साल


 मोर अठरा साल होई गेलक रे!!

जी हाँ, 15 नवंबर, 2000 में बना झारखंड आज 18 वर्षों का हो गया है। यूँ तो झारखंड, बिहार का एक भाग था जो उससे अलग हो गया। पर आज देश-दुनिया में इसकी भी अपनी एक अलग पहचान है। पर कहीं-न-कहीं ये पहचान राजनैतिक उठा-पटक के परदे तले छुप गयी है। प्राकृतिक संपदाओं से परिपूर्ण यह राज्य अपने खनिज की भरपूर मात्रा में उपलब्धता के लिए भी जाना जाता है। मूलतः यहाँ जनजातीय लोगों की अधिक मात्रा और प्रभाव है। झारखंड का अर्थ ही पेड़-पौधों का क्षेत्र है। अतः यहाँ वन संपदा और जनजातीय समाज का अधिक मात्रा में होना लाज़मी है।
खैर, तारीफों के पुल तो हर कोई बाँध देता है। पर वास्तविकता तो यही है कि झारखंड को एक स्थिर सरकार के लिए भी खासी मशक्कत करनी पड़ी। भगवान बिरसा मुंडा के सपने को सच करने की राह बिलकुल भी आसान न रही। और आज भी वो सपना कहीं-न-कहीं अधूरा ही है। विकास की दौड़ में जहाँ भारत के अन्य राज्य आगे बढ़ते जा रहे थे, वहीं कई रूपों में पिछड़ा हुआ यह राज्य बहुत पीछे छूटता दिखाई देता था। झारखण्ड के साथ ही अलग हुआ उत्तराखंड भी विकास के मामले में इससे काफ़ी आगे था।
अंत में जब इसे एक स्थिर सरकार मिली तो फिर तमाम वादों और तसल्लियों के साथ इसे आगे बढ़ाने का काम शुरू हुआ। झारखंड की मुख्य खूबियों में से एक यह है कि यहाँ का हर मुख्य मंत्री जनजातीय समाज का ही रहा है (भले ही इसके पीछे कितना ही राजनैतिक स्वार्थ क्यों न हो!)। वक़्त के साथ यहाँ उद्योग, मल्टी नेशनल कंपनीज़, बड़े- बड़े स्कूल, कॉलेज, अस्पताल सब खुल गए। यहाँ की खनिज सम्पदा का भी भरपूर उपयोग होने लगा। इस ओर एक बड़ा कदम पूरे राज्य में अलग-अलग जगहों पर स्टील उद्योग की स्थापना का था। और आज..यह इस मुकाम पर है जहाँ इसके कई शहरों को 'स्मार्ट सिटी' बनाने की बात की जा रही है।
विकास तो हुआ और हो रहा है, पर ज़मीनी स्तर पर अब भी एक बड़े बदलाव की ज़रूरत है। उम्र के इस दौर पर जब पूरे देश में राजनैतिक उथल-पुथल है, ऐसे में ये देखना रोमांचक होगा कि आने वाले समय में राज्य की सरकार में बदलाव होता है या नहीं, और यदि होता है तो आगे विकास के पैमाने क्या बनते हैं। यह देखना रोमांचक होगा..कि किशोरावस्था से अभी-अभी निकले इस राज्य का यौवन कैसा होगा।

चित्र साभार: झारखंड दर्पण

Saturday, 27 October 2018

नयी-पुरानी


दुनिया की सुनती हूँ
उससे खुद को बुनती हूँ
अपनी आवाज़ ज़रा कम पहचाना करती हूँ
दुनिया की सुनकर ही अब खुद को जाना करती हूँ

एक रोज़ था जब मैं, मैं हुआ करती थी
हर मोड़ पर फिसलती थी, गिरती थी संभलती थी
जब दुनिया दिन संग ढलती थी
मैं तन्हा ही जब चलती

अब रोज़ नयी कहानी है
जो दुनिया को सुनानी है
अपनी ये पहचान नहीं
पर अपनी ही ज़ुबानी है

जब हाथों पर मेहँदी चाँद-सी रचती थी
जब चेहरे पर ख़ुशी मुस्कान-सी जचती थी
अब हर रंग कोरा लगता है
लम्हों का कोहरा लगता है

पर गम नहीं ये बादल हैं
कुछ हालातों की चादर है
धूप के बाद छाँव आनी है
मेरे ही हाथों में मेरी ये कहानी है 

Wednesday, 10 October 2018

अगर तुम न होते


गर गर्मियाँ इतनी गर्म न होती तो क्या
मैं जान पाती कि सर्दियाँ इतनी सर्द हो सकती हैं?
गर तुम इतने सख़्त न होते तो क्या
मैं जान पाती कि मैं इतनी कोमल हो सकती हूँ?
गर तुम इतने पुरुष न बनते तो क्या
मैं इतनी स्त्री बन पाती?
गर तुम यूँ न जाते तो क्या
मैं यूँ तुम तक आ पाती?
गर तुम मुझ तक न आते तो क्या
मैं तुम से दूर जा पाती?
गर तुम्हारे सवाल इतने बड़े न होते तो क्या
मैं कभी उनका जवाब बन पाती?
नहीं! ये सब शायद ही कभी मुमकिन हो पाता
अगर तुम न होते।

Sunday, 15 July 2018

पहाड़ क्या है?


ललिता की चादर ओढ़े
वो चोटियाँ पहाड़ हैं क्या?
या चुपके से निकलती
सुबह की धूप पहाड़ है?
क्या उत्तराखंड ही
पहाड़ का पर्याय है?
या उत्तरांचल 
की कहानियाँ पहाड़ है?
मैंने पहाड़ियों को अक़सर
लड़ते देखा है
पहाड़ के नाम पर
जिस कर्मठता से वो 
अपनी संस्कृति का
बचाव करते हैं
मैंने उसी कर्मठता से 
उसका बखान
करते देखा है उन्हें
मेरा पहाड़! मेरा पहाड़! 
हाँ उनका ही तो है
पर कभी बतलाया नहीं
कि उनका पहाड़ है क्या
मैंने पहाड़ियों को
झूमते भी देखा है
कभी घुघूती पर
तो कभी चैतवाली पर
और उनको गाते भी देखा है
गदेरों के गुण
पर कभी ये नहीं सुना उनसे
कि पहाड़ क्या है
चाहे काफल का स्वाद हो
या नथ का श्रृंगार
मैंने उनको हर रंग में
रंगते देखा है
शायद इसलिए नहीं
बताता कोई
कि पहाड़ आखिर है क्या
क्योंकि हर किसी के लिए
अलग है उसका पहाड़
या शायद ये सबका
कोई संगठित रहस्य है
शायद तभी
पहाड़, पहाड़ बना हुआ है
शायद यही है पहाड़
एक रहस्य
कभी बताना चाहो 
तो बता देना..
मैं किसी से नहीं कहूँगी!

Friday, 15 June 2018

Angels and Demons- An intriguing thriller set in the backdrop of the Vatican city

Book: Angels and Demons
Author: Dan Brown
Genre: Historical Thriller

Angels and Demons is basically a historical thriller, speaking about technology, Catholicism and science. It portrays the character Robert Langdon as the hero of the story, running to save the Vatican city from a re-surged Brotherhood called the Illuminati. Langdon himself is a professor and expert of religious symbology at Harvard.
The plot begins with him waking up in the middle of the night by a call from CERN, a Swiss research faculty. He then discovers that Leonardo Vetra- a scientist and researcher at CERN has been murdered and branded with the word Illuminati. He gets the idea of the resurging brotherhood through the branded chest. A new discovery takes place when the dead researcher's daughter Vittoria Vetra arrives, that is- a precious new invention of  science - the antimatter that has energy more than nuclear bombs, has been stolen.  Langdon then runs runs to the Vatican city with Vittoria Vetra to save the Vatican, looking for clues, finding them on time. And like a treasure hunt, he, in the end finds the culprit. But the most interesting part of the story is obviously its end. The twist in the end, where the Camerlegno is discovered to be faulty is somewhat unexpected.
The development of characters has been done accurately well. Robert Langdon is the clever scholar, who finds clues and in the end his belief on his knowledge is deepened. Vittoria Vetra is a beautiful women who portrays a strong headed character, she is both intelligent and athletic. The most important development is in the character of Camerlegno Carlo Ventresca. His innocence in the beginning and then its development with time and story is great.
The story is interesting. It remains successful in holding the interest of the readers, except at some points where a single part is exaggerated unnecessarily. It makes the readers skip those parts. The end has been precisely and cleverly written. No guesses at all.  The book provides information from history but also dramatizes them. The conflict between science and God has been explained well. The concepts of good and evil in the book are worth reading from a moral point of view.
In short, it is a fascinating and intriguing book worth a read.


After the success of The Da Vinci Code, Dan Brown came up with another book in the Robert Langdon series.

Stars: 3.5/5

Friday, 1 June 2018

I'm Breaking Up With You!

Breakup is so cliche..everybody does that! Let's be a little practical and get separated in a better way. Let's go to a trip somewhere in the middle of nowhere, separately. Because after all..we want just that right!?Let's just get going without being tense or worried. Let's forget what we were doing, what job or which people we had, and what would be happening back there.
We have just one life in our hands..slipping like sand with each passing moment. So yes, I'm breaking up with you, with all the stress and anxiety, all those questions and quarrels. I'm breaking up with all those bullies and with those taunts. I'm breaking up with my older self, you are no longer allowed in my life.
So yes!! That's my idea of practically breaking up with someone or something..going on a holiday. Giving myself a break from my own self. Because you do not realize..but over time, you are cocooned by several layers of yourself that seem to protect you but are slowly and calmly suffocating you. One day..you'll be that claustrophobic being who would have no one to listen to. So shed those versions of yourself that are not you but manipulated copies of you, manipulated by the society, by work, by stress, responsibilities and the list goes on.
Give yourself a break because trust me!! you deserve it! So this is my idea..of individuality. What's yours??

Thursday, 31 May 2018

जमशेदपुर: सिर्फ एक शहर या कुछ ज्यादा?


जमशेदपुर क्या है? माना कि ये अपने स्टील इंडस्ट्रीज के लिए जाना जाता है, पर क्या ये बस इन्हीं तक सीमित है?
नहीं। जमशेदपुर कहने को तो बस एक इंडस्ट्रियल सिटी है पर यहाँ रहने वाले किसी से पूछ कर देखिये! यादों का और एहसासों का एक ऐसा पिटारा खुलेगा जो आपकी सोच को बदल देगा।
इस क्लीन और ग्रीन सिटी में रहने वाले हर बच्चे का बचपन टाटा ज़ू के उछलते कूदते जानवर और जुबिली पार्क के खूबसूरत गुलाब देखकर बीतता है। ऐसा शायद ही कोई व्यक्ति हो जिसने गोलपहाड़ी मंदिर की चढ़ाई न की हो या साकची बाज़ार की भीड़ में पसीना न बहाया हो। फिर आमबगान में लगने वाला डिज़्नी लैंड मेला कौन भूल सकता है भला! चाहे गणेश पूजा हो या दुर्गा पूजा, यहाँ हर त्यौहार उतनी ही धूमधाम से मनाया जाता है। छठ पूजा का उल्लास और सरस्वती पूजा के वक़्त छोटी-छोटी लड़कियों को साड़ी पहनकर घूमते देखना अलग ही आनंद देता है। जितने अलग यहाँ त्योहारों के नाम हैं, उतने ही निराले ढंग से यहाँ इन्हें मनाया जाता है।
इस समतल ज़मीन से जब बाहर से आये लोगों को दलमा के हरे-भरे पहाड़ नज़र आते है तो उनके लिए इस बात को हज़म करना ज़रा मुश्किल हो जाता है। उस पर खड़काई और दोमुहानि से लगकर बना मरीन ड्राइव सबका मन मोह लेता है। सुबह-शाम राज्य पक्षी कोयल के गानों से भला जमशेदपुर में कौन वाकिफ़ नहीं!?
जिस तरह लोग जमशेदपुर में बसते हैं, उसी तरह यहाँ के हर इंसान में उसका अपना जमशेदपुर बसता है।
यह शहर कहने को तो बहुत पुराना है, पर विकास के इस दौर में यह बदलाव से कदम मिलाकर चला है। समय के साथ यहाँ शौपिंग मॉल, मूवी थिएटर, रेस्ट्रॉन्ट और होटल, ऊँची इमारतें सब बन गए हैं। आज ऐसी कोई चीज़ नहीं जिसके लिए किसी को यहाँ से बहार जाना पड़े। खनिज के उपयोग के साथ-साथ यह शहर चीज़ों की उपयोगिता भी खूब जानता है। इस्तेमाल किये हुए प्लास्टिक के उपयोग से सड़कों का निर्माण इसका मात्र एक उदाहरण भर है।
चाहे सोनारी का साई मंदिर हो या रुसी मोदी सेंटर के सामने का पिरामिड, चाहे जे आर डी टाटा स्पोर्ट्स ग्राउंड हो या बिस्टुपुर का गोपाल मैदान, आकर्षण के केंद्र यहाँ कम नहीं हैं।

ये तो बस तस्वीर का एक भाग है। ऐसे जाने कितने भाग हर जमशेदपुरवासी के अंदर बसते हैं। हर व्यक्ति इस शहर को अलग नज़र से देखता है। हर किसी की अपनी कहानी है, हर किसी के अपने अनुभव। कहने को..तो ये बस एक शहर भर है, पर ये सिर्फ एक शहर नहीं यहाँ के लोगों का एक हिस्सा है।

चित्र: जमशेदपुरसिटी

Wednesday, 30 May 2018

हिन्दी केवल भाषा नहीं

अब भी कुछ लोग हैं जो हवा में रस घोल लेते हैं
अब भी कुछ लोग हैं जो हिंदी बोल लेते हैं
ये पंक्तियाँ यूँ तो आम तरह की ही हैं, पर नहीं, ये आम नहीं हैं। ये वो पंक्तियाँ हैं जो आज के समाज की, आज के भारत की दयनीय अवस्था को बयां करती हैं। हिंदी हमारे समाज का वो हिस्सा है जिससे हम बने हैं, जो हमारे अस्तित्व को पहचान देता है। पर स्थिति आज ऐसी है कि भारत जैसे देश में हिंदी बोलने वालों की कमी हो रही है। लोग अंग्रेज़ बनने की होड़ में हिंदी से दूर हो रहे हैं। आज लोग भारत में नहीं, इंडिया में जी रहे हैं। आज हर बच्चे को अच्छी हिंदी आती हो या नहीं, उसे अच्छी अंग्रेज़ी ज़रूर सिखाई जाती है, मानो अंग्रेज़ी भाषा न हुई, आदमी की इज़्ज़त हो। चीनी के बाद विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा आज अपने ही राष्ट्र में अपने अस्तित्व, अपनी पूर्णता, अपने सम्मान के लिए लड़ रही है। क्या यही है हम? हमें खुद से पूछने की ज़रूरत है कि क्या हम सच में हिन्दुस्तानी कहलाने के लायक हैं!? इस हिंदीवादि कहे जाने वाले राष्ट्र के ही कुछ लोग आज इसे हीनता की दृष्टि से देखते हैं, जिसे सिर्फ हिंदी आती है उसे कुछ नहीं आता।
वैश्वीकरण ने अंग्रेज़ी को एक आवश्यक भाषा बना दिया है। इसका सबसे अधिक प्रभाव नयी पीढ़ी पर पड़ा है और आगे की पीढ़ियों पर पड़ रहा है। आज हर किसी की सुबह गुड मॉर्निंग और रात गुड़ नाईट से होती है। किसी ने कुछ दिया हो तो थैंक यू कहते हैं और किसी से कुछ लेना हो तो प्लीज़। ऐसे में कैसे हो हिंदी का प्रचार? हिंदी दिवस आते ही हिंदी पर प्रतियोगिताएँ, पखवाड़े, फलाना-फलाना चीज़ें आयोजित की जाती है। एक दिन के लिए हिन्दी को सर पर बैठाकर फिर नीचे उतार दिया जाता है।
हिन्दी को जितनी मान्यता मिलनी चाहिए उतनी नहीं मिल रही। आज़ादी के 70 साल बाद भी भारत अंग्रेज़ियत से आज़ाद नहीं हो पाया है। राष्ट्र के मुद्दे अब भी वही घिसे-पिटे है, कभी राजनीति तो कभी भ्रष्टाचार, कभी तेल तो कभी ईवीएम। पर केवल यही नहीं, भारत में आज हिंदी का प्रयोग भी मुद्दा है और उसका प्रयोग न होना भी। यह केवल एक बहस का मुद्दा बनकर रह गयी है।
सभी भारतियों को यह समझने की ज़रूरत है कि हिंदी केवल एक भाषा नहीं है, उनकी पहचान का हिस्सा। हिंदी का प्रयोग शर्म की नहीं बल्कि गर्व की बाद है। इसे केवल एक दिन न देकर हमेशा उतना ही महत्व देना आवश्यक है जितने की वो हक़दार है।
चित्र: दैनिक जागरण

Sunday, 27 May 2018

Prostitute: No woman is by choice


The female body is a temple.. no it isn't. It is a brothel instead. Never is it asked what it desires. It is fed with luxuries and then lied upon. The night is the hour of this body, because at this time the libido of the man is at its peak. And the so-called temple isn't even taken into consideration for having any such thing.
Prostitution.. the word itself is a taboo in today's society where beginning the day with one woman and ending it with another is a symbol of sophistication for men. Yes, because he then becomes the most desirable or at worse a Casanova, but never slut shamed.
India has the worst case scenario in this case. There are around 10 million commercial sex workers in India. Yes, 10 million prostitutes who sell their bodies solely for money. About 2 lakh 75thousand brothels run a business of millions with a hike of 2 lakh per year. 3/4th of the prostitutes work here due to poverty and 1/4th work due to marital problems. Women who are either there due to helplessness or are forced into prostitution have either the worst or no option left with them. Hence they sell their bodies for money. Neither is their libido satisfied nor are their desires looked into. They get no pleasure and only pain.
But hey!! This being a major issue in human as well as a country's development  is ever ignored. Instead the very men who sleep with these so called sluts or bitches spit on them once they are done.
I ask...how are they any different from these women who sell their bodies? The sexual engagement occurs between two people then how is one ostracized and the other accepted in the society? Is that man too not a prostitute in one way? And what right does he have to label a character certificate to that woman he slept with? And why does he not do this with his very own wife?
The so called male dominated society is a mass of hypocrisy. And its principles and ideas a bundle of contradictions. These men idolize porn stars and actresses who are naked - either partially or completely in front of the whole world. But slut shame these prostitutes who do it for feeding their families. Poor men!!
The need is to look at both sexes with the same respect in one's eyes. Even if it is a prostitute who is talked about. No woman is a prostitute by birth or choice. It is simply the wrath of time that forces them into this misery.
     Pic: Legal bite

Thursday, 24 May 2018

मेरा दर्पण

आज..मेरा दर्पण मुझसे पूछ रहा था
क्या वही है तू
जो पहले थी?
या वक़्त के पहरेदारों ने
तुझे पहचानना छोड़ दिया?
इधर घड़ी की टिक-टॉक टिक-टॉक सुनते हुए
मैं मुस्कुरा रही थी उसके सामने
और वो
भौंहे सिकोड़े देख रहा था मुझे
मुझसे ज़्यादा रंगीन था वो
मैं किसी ब्लैक-एंड-वाइट पिक्चर-सी लग रही थी उसके सामने
मेरा दर्पण
मुझे काम्प्लेक्स दे रहा था
शायद सुपेरिओरटी..
सच..मेरा दर्पण बिलकुल नहीं बदला था
पर मेरे जैसा होकर भी
मुझ-सा नहीं था वो
मुझसे गुफ़्तगु के इंतज़ार में कुछ बूढ़ा हो चला था वो
मानो मैं एडोलसेंट रह गयी
और वो एडल्ट हो गया
मानो वो बोल्ड हो गया
और मुझे क्लीन बोल्ड कर दिया हो
मेरा दर्पण मुझे आँखें दिखा रहा था
कह रहा था
तुम चली तो मेरे साथ थी
फिर पीछे कहाँ रुक गयी?
अब क्या बताती मैं उसे
कि इस गधों की रेस में
खुद को ढूंढ रही थी?
कि जब खुद को ही दूसरों में ढूंढ रही थी
तो तुम्हे क्या देखती?
मेरा दर्पण..
मुझसे नाराज़ था
पर एक वही था जो
रात के अँधेरे में भी
मेरे अंदर ही कहीं छुपा बैठ था
जो मेरा अपना था
मेरा दर्पण नाराज़ था मुझसे
पर मना ही लिया मैंने उसे
अब दुनिया से तो उसे मनाना आसान ही था

Monday, 26 March 2018

नवधान्या



 देव संस्कृति विश्वविद्यालय के पत्रकारिता एवं जन संचार केंद्र की ओर से विद्यार्थियों को देहरादून में स्थित नवधान्या के भ्रमण पर ले जाया गया, जहाँ उन्होंने बीजों की महत्ता व उनके संरक्षण के बारे में जाना। नवधान्या, डाॅ. वंदना षिवा द्वारा स्थापित एक बीज संस्थान है। यह बीजों के रूप में पर्यायवरण व जीवन दोनों का संरक्षण करता है। इसका मूल आधार वसुधैव कुटुम्बकम है, जिसके माध्यम से यह भारत की जैव विविधता की रक्षा करता है।
नवधान्य का अर्थ है- नौ बीज, जिनमें यव, शामक, तोगरी, मदगा, कदाले, तंदूला, तिल, माशा व कुलिट्ठा शामिल हैं। 1984 में स्थापित इस गैर सरकारी संस्था को 34 वर्ष पूरे हो चुके हैं। इस दौरान ये पूरे देश में 54 बीज खाते खोल चुके हैं तथा 5 लाख किसानों को प्रशिक्षण प्रदान कर चुके हैं।

जैविक खेती पर ज़ोर देेते हुए इन्होंने बीज विद्यापीठ नामक एक शिक्षण केंद्र की भी स्थापना की है, जो कि उत्तराखंड के देहरादून में स्थित है। नवधान्या जीएमओ सीड्स के सख्त खिलाफ है। 1991 में इनके द्वारा जीएमओ सीड्स के खिलाफ एक अभियान भी चलाया था, जिसका नाम- जीएमओ फ्री कैंपेन है। यह अभियान अब तक चला आ रहा है।

नवधान्या के इन्हीं कार्यों के बारे जानने की ओर विद्यार्थियों ने एक कदम बढ़ाया। संस्थान के अंदर जाने पर श्री दिनेष सेमवाल जी द्वारा सभी का अभिनंदन किया गया। इसके पश्चात सभी को गज़ेबु कहे जाने वाले एक झोपड़े में बैठाया गया। इस दौरान सेमवाल जी ने सभी को बताया कि पिछले वर्ष तीन लाख दस हज़ार किसानों ने आत्महत्या की थी, जिनमें से अधिकतर जेनेटिकली माॅडिफाईड(जीएमओ) बीजों का प्रयोग करते थे। इन बीजों की वजह से न तो फसल अच्छी हो पाई और न ही किसानों के कर्ज़ की भरपाई हुई। अतः उनके पास आत्महत्या करने के अलावा दूसरा कोई रास्ता न था।

वर्षों पहले तक भी हालात कुछ अलग नहीं थे। भारतवासी नील की खेती करने को मजबूर थे, और उसके बाद अत्यधिक मात्रा में पेड़ों को काटा जाने लगा। उस दौरान कुछ लोग पेड़ों के संरक्षण के लिए आगे आए, जिनमें गौरा देवी प्रमुख थी। उन्हीं से पे्ररित होकर डाॅ. वंदना शिवा बीज संरक्षण की ओर अग्रसर हुई।
श्रीमान सेमवाल जी ने कहा कि नवधान्या के प्रयास एक गिलहरी की तरह है, किन्तु वह अपनी ओर सेे आगे बढ़ने की सदा कोशिश करती रहेगी। उन्होंने बीजों के बारे में बात करते हुए कहा कि जिन बीजों का वे संरक्षण करते हैं, वे उनके नहीं, अपितु किसानों के ही हैं। उन्होंने हरित क्रांति के समय के पंजाब व हरियाणा का उदाहरण देते हुए कहा कि अधिक मात्रा में यदि जीएमओ सीड्स का प्रयोग किया जाए व बीजों का संरक्षण न किया जाए तो वह वक्त दूर नहीं जब हज़ारों फ़सलों का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। पंजाब की हालत को बयां करते हुए उन्होंने वहाँ से चलने वाली कैंसर ट्रेन का भी ज़िक्र किया।

नवधान्या न सिर्फ प्रकृति पर, अथवा महिलाओं पर भी उचित ध्यान देता है। उनका मानना है कि महिलाएं बेहतर तरीके से प्रकृति की रक्षा कर सकती हैं।  इसी संदर्भ में आगे कहते हुए उन्होंने कहा कि- महिलाओं की रक्षा प्रकृति की रक्षा तथा प्रकृति की रक्षा महिलाओं की रक्षा है। महिलाओं का प्रकृति से रिश्ता ही इको फ़ेमिनिस्म है।

फसलों के बारे में बताते हुए उन्हांेने कहा कि वे ऐसे अनाजों की खेती करते हैं जो आपस में एक दूसरे की उत्पादकता व पोषण का काम करती हैं। इनमें मुख्यतः मोटे अनाज शामिल होते हैं, जो समय के साथ कम होते जा रहे हैं। इसका एक मुख्य कारण है कि आज के किसानों में मोनोकल्चर का प्रचलन बढ़ रहा है, जिस कारण एक फसल खराब होने पर दूसरा कोई विकल्प नहीं रह जाता। 

 

अपने बीज खाते(बैंक) का भ्रमण करवाते हुए उन्होंने बताया कि देहरादून का सीड बैंक नवधान्या का पहला बैंक है, जिसे बीजा देवी नामक एक स्त्री ने शुरू किया था। उन्होंने बताया कि उनके बीज बैंक में 730 प्रकार के धान, 41 प्रकार के बासमती, 212 तरह के गेहूं, 32 तरह के जौ, आदि कई तरह के बीज संरक्षित हैं। नवधान्या के 17 राज्यों में 120 बीज बैंक हैं। जिन बीजों का संरक्षण वे करते हैं, उन्हें सिर्फ दो महीनों तक रखा जा सकता है। इन बीजों को बचाने के लिए, बीज बैंक को गोबर से लीपा जाता है तथा कुछ फूल उन बीजों के साथ रखे जाते हैं, ताकि उनका कीट-पतंगों व जीवाणुओं से बचाव हो सके। बीज बैंक के अलावा नवधान्या में गौ पालन भी किया जाता है। वहीं पत्तों व गोबर से जैविक खाद का उत्पादन होता है।

नवधान्या के माध्यम से समय-समय पर प्रशिक्षण पाठ्यक्रम भी चल रहे हैं। दाल यात्रा, बीज सत्याग्रह, पल्स आॅफ लाईफ, आदि अभियान इनमें से कुछ हैं। इनके अलावा यहाँ के आम्रपाली(आम के बाग) में प्रत्येक वर्ष आमोत्सव भी मनाया जाता है।

नवधान्या का वातावरण बहुत ही शांत, साफ और सुंदर है। यहाँ शोध के लिए आए लोगों ने पाया कि नवधान्या में 78 प्रकार के पक्षी हैं। आसपास के अन्य किसी भी जगह पर इतने पक्षी नहीं पाए गए।

अतः नवधान्या जैसे संस्थान का भ्रमण सभी के लिए बहुत लाभदायक व ज्ञानवर्धक रहा। भारत को ऐसे और संस्थानों की आवश्यकता है, क्योंकि वह दिन दूर नहीं जब पेड़ों की तादाद अत्यधिक कम हो चुकी होगी। ऐसे में, ग्लोबल वार्मिंग के इस काल में खाद्य संरक्षण एक विशेष मुद्दा है। 

रिपोर्टः वर्षा चौरसिया, निकिता पटेल
           पत्रकारिता एवं जनसंचार
 




Trying To Be

I'm not a stranger to myself I'm just trying to be To let someone else Know me The way I tried and lost Though I know myself...